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भाई-बहनों, आज हम पांडवों की माता कुन्ती के जीवन का दर्शन करेंगे, By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबमहाभारत युद्ध के बाद जब भगवान् श्री कृष्णजी द्वारिका जा रहे थे, तब भगवान् ने सभी को इच्छित वरदान दियें, जब माता कुन्ती से वर मांगने के लिये कहाँ गया तो माँ कुन्ती ने क्या मांगा? कुन्ती बोली- मैं क्या मांगूं गोपाल? मांगते तो वो हैं जिनके पास कुछ होता नहीं, जिसको सर्वस्व पहले ही मिला हुआ हो, वो क्या मांगे? कन्हैया बोले, कुछ तो मांगो बुआ, मेरा देने का मन है, कुन्ती ने तुरंत अपनी साड़ी के पल्लू को आगे कर लिया और देना चाहते हो तो गोपाल एक ही वर दे दो।विपद: सन्तु न: शश्ववत्तत्र तत्र जगद्गुरो।भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनभ॔वदर्शनम्।।मेरे जीवन में विपत्ति पर विपत्ति आती रहें, एक विपत्ति दूर न हो दूसरी विपत्ति आ जाये, दु:ख पर दु:ख मेरे जीवन में आता रहे, भगवान् बोले, क्या मांग रही हो बुआ? दु:ख भी कोई मांगने की चीज है? कुन्ती ने कहा गोपाल जिस दु:ख में तुम्हारी याद आती है ना, वो दु:ख ही सबसे बड़ा सुख होता है, मेरे गोविन्द आवेश में आ गये और बोले, बुआ अब ये दु:ख मैं तुम्हें नहीं दे सकता, जीवन में दु:ख के सिवाय तुमने और पाया ही क्या है? सज्जनों! आप माता कुन्ती के चरित्र पर एक नजर डालकर देखें, कुन्ती का जन्म हुआ मथुरा में शूरसेन के घर, जन्म लेने के बाद ही इनको कुंती भोज राजा ले गये, इनका वास्तविक नाम है प्रथा, कुंती भोज राजा ने अपना नाम दिया और कुन्ती नाम रख दिया, इनका जन्म कहीं हुआ, पालन दूसरे घर में हुआ, भाई-बहनों! जिस बालक का जन्म कहीं और पालन कहीं और हो, उसका बचपन सुख से व्यतीत कैसे हो सकता है? बचपन माता कुन्ती का बड़े कष्ट में व्यतीत हुआ, किशोरावस्था भें कुन्ती का विवाह हो गया, विवाह भी हुआ तो एक ऐसे पुरुष से जो जन्म से ही पीलिया के रोग से ग्रस्त हैं, माद्रि और कुन्ती दोनों उनकी पत्नी हैं, कुन्ती ने सोचा, कोई बात नहीं मेरे लिए तो पति परमेश्वर है, पति भी मिला तो ऐसा जो पीलिया का रोगी है और उस पति का कोई सुख नहीं, क्योंकि पति को ऐसा श्राप मिला हुआ कि जब भी सहवास की कामना लेकर पत्नी के पास जाओगे, तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी।ये तो महात्मा दुर्वासा के कुछ मंत्र ऐसे दिये हुए थे जिससे कुन्ती जिस देवता का आव्हान करके बुलाती तो प्रकट हो जाते, उन्हीं मंत्रों के आश्रय से धर्मराज को आमंत्रित किया, धर्मराज की कृपा से युधिष्ठिरजी का प्रादुर्भाव हुआ, इन्द्र की कृपा से अर्जुन, पवनदेव की कृपा से भीमसेन, माद्रि जो उनकी सौत हैं, उसके लिये भी अश्विनी कुमारों को आमंत्रित किया, दो बेटे हुए नकुल और सहदेव, माता कुन्ती पाँच पांडवों में से बङे तीन की माता थीं, कुन्ती पंच-कन्याओं में से एक हैं जिन्हें चिर-कुमारी कहा जाता है।भाई-बहनों! महाराज पाण्डु को श्राप कैसे मिला यह भी समझने की कोशिश करेंगे, हुआ ऐसा कि एक बार राजा पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों यानी माता कुन्ती तथा माद्री के साथ आखेट के लिये वन में गये, वहाँ उन्हें एक मृग का मैथुनरत जोड़ा दृष्टिगत हुआ, पाण्डु ने तत्काल अपने बाण से उस मृग को घायल कर दिया, मरते हुये मृग ने पाण्डु को शाप दिया कि तुम्हारे समान क्रूर पुरुष इस संसार में कोई भी नहीं होगा, तूने मुझे मैथुन के समय बाण मारा है अतः जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तेरी मृत्यु हो जायेगी।इसी दौरान राजा पाण्डु ने अमावस्या के दिन ऋषि-मुनियों को ब्रह्मा जी के दर्शनों के लिये जाते हुये देखा, उन्होंने उन ऋषि-मुनियों से स्वयं को साथ ले जाने का आग्रह किया, उनके इस आग्रह पर ऋषि-मुनियों ने कहा, "राजन्! कोई भी निःसन्तान पुरुष ब्रह्मलोक जाने का अधिकारी नहीं हो सकता अत: हम आपको अपने साथ ले जाने में असमर्थ हैं, ऋषि-मुनियों की बात सुन कर पाण्डु अपनी पत्नी से बोले, हे कुन्ती! मेरा जन्म लेना ही वृथ हो रहा है, क्योंकि? सन्तानहीन व्यक्ति पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा मनुष्य-ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता। क्या तुम पुत्र प्राप्ति के लिये मेरी सहायता कर सकती हो? कुन्ती बोली- हे आर्यपुत्र! दुर्वासा ऋषि ने मुझे ऐसा मन्त्र प्रदान किया है जिससे मैं किसी भी देवता का आह्वान करके मनोवांछित संतान प्राप्त कर सकती हूँ, आप आज्ञा करें मैं किस देवता को बुलाऊँ, इस पर पाण्डु ने धर्म को आमन्त्रित करने का आदेश दिया, धर्म ने कुन्ती को पुत्र प्रदान किया जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया, महाराज पाण्डु ने कुन्ती को पुनः दो बार वायुदेव तथा इन्द्रदेव को आमन्त्रित करने की आज्ञा दी। वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन की उत्पत्ति हुई, तत्पश्चात् महाराज पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती ने माद्री को उस मन्त्र की दीक्षा दी, माद्री ने अश्वनीकुमारों को आमन्त्रित किया और नकुल तथा सहदेव का जन्म हुआ, महाराज पाण्डु की मौत का कारण भी वही श्राप है जो हिरण ने दिया था, हुआ ऐसा कि एक दिन राजा पाण्डु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे, वातावरण अत्यन्त रमणीक था और शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु चल रही थी, वायु के झोंके से माद्री का वस्त्र उड़ गया, इससे पाण्डु का मन चंचल हो उठा और वे मैथुन मे प्रवृत हुये ही थे कि श्रापवश उनकी मृत्यु हो गयी।माद्री उनके साथ सती हो गई किन्तु पाँच पुत्रों के पालन-पोषण के लिये कुन्ती हस्तिनापुर लौट आई, सज्जनों! ऐसे कष्टों से भरा जीवन जीने के बाद भी भगवान् से माता कुन्ती अपने लिये कष्ट माँगती है, ऐसी वीर माता के जीवन चरित्र को हमें अपने जीवन में धारण करना चाहियें, गये शुक्रवार को हमने माता देवहूति के जीवन चरित्र के दर्शन किये थे, जो भगवान् कपीलजी और सती अनुसूइयाजी की माताश्री भी थी, भाई-बहनों! ऐसी पोस्ट करने का मेरा मकसद ही यहीं है कि शास्त्रों में वर्णित ऐसी वीर माताओं के जीवन चरित्र का हम दर्शन कर सकें और हम अपने जीवन में धारण करने की कोशिश करें, आज के पावन दिवस की पावन सुप्रभात् आप सभी के लिये मंगलमय् हो।जय श्री राधे-कृष्ण!ओऊम् नमो भगवते वासुदेवाय्

भाई-बहनों, आज हम पांडवों की माता कुन्ती के जीवन का दर्शन करेंगे, 
महाभारत युद्ध के बाद जब भगवान् श्री कृष्णजी द्वारिका जा रहे थे, तब भगवान् ने सभी को इच्छित वरदान दियें, जब माता कुन्ती से वर मांगने के लिये कहाँ गया तो माँ कुन्ती ने क्या मांगा? कुन्ती बोली- मैं क्या मांगूं गोपाल? मांगते तो वो हैं जिनके पास कुछ होता नहीं, जिसको सर्वस्व पहले ही मिला हुआ हो, वो क्या मांगे? कन्हैया बोले, कुछ तो मांगो बुआ, मेरा देने का मन है, कुन्ती ने तुरंत अपनी साड़ी के पल्लू को आगे कर लिया और देना चाहते हो तो गोपाल एक ही वर दे दो।

विपद: सन्तु न: शश्ववत्तत्र तत्र जगद्गुरो।
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनभ॔वदर्शनम्।।

मेरे जीवन में विपत्ति पर विपत्ति आती रहें, एक विपत्ति दूर न हो दूसरी विपत्ति आ जाये, दु:ख पर दु:ख मेरे जीवन में आता रहे, भगवान् बोले, क्या मांग रही हो बुआ? दु:ख भी कोई मांगने की चीज है? कुन्ती ने कहा गोपाल जिस दु:ख में तुम्हारी याद आती है ना, वो दु:ख ही सबसे बड़ा सुख होता है, मेरे गोविन्द आवेश में आ गये और बोले, बुआ अब ये दु:ख मैं तुम्हें नहीं दे सकता, जीवन में दु:ख के सिवाय तुमने और पाया ही क्या है? 

सज्जनों! आप माता कुन्ती के चरित्र पर एक नजर डालकर देखें, कुन्ती का जन्म हुआ मथुरा में शूरसेन के घर, जन्म लेने के बाद ही इनको कुंती भोज राजा ले गये, इनका वास्तविक नाम है प्रथा, कुंती भोज राजा ने अपना नाम दिया और कुन्ती नाम रख दिया, इनका जन्म कहीं हुआ, पालन दूसरे घर में हुआ, भाई-बहनों! जिस बालक का जन्म कहीं और पालन कहीं और हो, उसका बचपन सुख से व्यतीत कैसे हो सकता है? 

बचपन माता कुन्ती का बड़े कष्ट में व्यतीत हुआ, किशोरावस्था भें कुन्ती का विवाह हो गया, विवाह भी हुआ तो एक ऐसे पुरुष से जो जन्म से ही पीलिया के रोग से ग्रस्त हैं, माद्रि और कुन्ती दोनों उनकी पत्नी हैं, कुन्ती ने सोचा, कोई बात नहीं मेरे लिए तो पति परमेश्वर है, पति भी मिला तो ऐसा जो पीलिया का रोगी है और उस पति का कोई सुख नहीं, क्योंकि पति को ऐसा श्राप मिला हुआ कि जब भी सहवास की कामना लेकर पत्नी के पास जाओगे, तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी।

ये तो महात्मा दुर्वासा के कुछ मंत्र ऐसे दिये हुए थे जिससे कुन्ती जिस देवता का आव्हान करके बुलाती तो प्रकट हो जाते, उन्हीं मंत्रों के आश्रय से धर्मराज को आमंत्रित किया, धर्मराज की कृपा से युधिष्ठिरजी का प्रादुर्भाव हुआ, इन्द्र की कृपा से अर्जुन, पवनदेव की कृपा से भीमसेन, माद्रि जो उनकी सौत हैं, उसके लिये भी अश्विनी कुमारों को आमंत्रित किया, दो बेटे हुए नकुल और सहदेव, माता कुन्ती पाँच पांडवों में से बङे तीन की माता थीं, कुन्ती पंच-कन्याओं में से एक हैं जिन्हें चिर-कुमारी कहा जाता है।

भाई-बहनों! महाराज पाण्डु को श्राप कैसे मिला यह भी समझने की कोशिश करेंगे, हुआ ऐसा कि एक बार राजा पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों यानी माता कुन्ती तथा माद्री के साथ आखेट के लिये वन में गये, वहाँ उन्हें एक मृग का मैथुनरत जोड़ा दृष्टिगत हुआ, पाण्डु ने तत्काल अपने बाण से उस मृग को घायल कर दिया, मरते हुये मृग ने पाण्डु को शाप दिया कि तुम्हारे समान क्रूर पुरुष इस संसार में कोई भी नहीं होगा, तूने मुझे मैथुन के समय बाण मारा है अतः जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तेरी मृत्यु हो जायेगी।

इसी दौरान राजा पाण्डु ने अमावस्या के दिन ऋषि-मुनियों को ब्रह्मा जी के दर्शनों के लिये जाते हुये देखा, उन्होंने उन ऋषि-मुनियों से स्वयं को साथ ले जाने का आग्रह किया, उनके इस आग्रह पर ऋषि-मुनियों ने कहा, "राजन्! कोई भी निःसन्तान पुरुष ब्रह्मलोक जाने का अधिकारी नहीं हो सकता अत: हम आपको अपने साथ ले जाने में असमर्थ हैं, ऋषि-मुनियों की बात सुन कर पाण्डु अपनी पत्नी से बोले, हे कुन्ती! मेरा जन्म लेना ही वृथ हो रहा है, क्योंकि? सन्तानहीन व्यक्ति पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा मनुष्य-ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता। 

क्या तुम पुत्र प्राप्ति के लिये मेरी सहायता कर सकती हो? कुन्ती बोली- हे आर्यपुत्र! दुर्वासा ऋषि ने मुझे ऐसा मन्त्र प्रदान किया है जिससे मैं किसी भी देवता का आह्वान करके मनोवांछित संतान प्राप्त कर सकती हूँ, आप आज्ञा करें मैं किस देवता को बुलाऊँ, इस पर पाण्डु ने धर्म को आमन्त्रित करने का आदेश दिया, धर्म ने कुन्ती को पुत्र प्रदान किया जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया, महाराज पाण्डु ने कुन्ती को पुनः दो बार वायुदेव तथा इन्द्रदेव को आमन्त्रित करने की आज्ञा दी। 

वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन की उत्पत्ति हुई, तत्पश्चात् महाराज पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती ने माद्री को उस मन्त्र की दीक्षा दी, माद्री ने अश्वनीकुमारों को आमन्त्रित किया और नकुल तथा सहदेव का जन्म हुआ, महाराज पाण्डु की मौत का कारण भी वही श्राप है जो हिरण ने दिया था, हुआ ऐसा कि एक दिन राजा पाण्डु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे, वातावरण अत्यन्त रमणीक था और शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु चल रही थी, वायु के झोंके से माद्री का वस्त्र उड़ गया, इससे पाण्डु का मन चंचल हो उठा और वे मैथुन मे प्रवृत हुये ही थे कि श्रापवश उनकी मृत्यु हो गयी।

माद्री उनके साथ सती हो गई किन्तु पाँच पुत्रों के पालन-पोषण के लिये कुन्ती हस्तिनापुर लौट आई, सज्जनों! ऐसे कष्टों से भरा जीवन जीने के बाद भी भगवान् से माता कुन्ती अपने लिये कष्ट माँगती है, ऐसी वीर माता के जीवन चरित्र को हमें अपने जीवन में धारण करना चाहियें, गये शुक्रवार को हमने माता देवहूति के जीवन चरित्र के दर्शन किये थे, जो भगवान् कपीलजी और सती अनुसूइयाजी की माताश्री भी थी, भाई-बहनों! ऐसी पोस्ट करने का मेरा मकसद ही यहीं है कि शास्त्रों में वर्णित ऐसी वीर माताओं के जीवन चरित्र का हम दर्शन कर सकें और हम अपने जीवन में धारण करने की कोशिश करें, आज के पावन दिवस की पावन सुप्रभात् आप सभी के लिये मंगलमय् हो।

जय श्री राधे-कृष्ण!
ओऊम् नमो भगवते वासुदेवाय्

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