वास्तु शास्त्रBy समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबकिसी अन्य भाषा में पढ़ेंडाउनलोड करेंध्यान रखेंसंपादित करेंStub icon यह लेख एक आधार है। जानकारी जोड़कर इसे बढ़ाने में विकिपीडिया की मदद करें।संस्कृत में कहा गया है कि... गृहस्थस्य क्रियास्सर्वा न सिद्धयन्ति गृहं विना। [1]वास्तु शास्त्र घर, प्रासाद, भवन अथवा मन्दिर निर्माण करने का प्राचीन भारतीय विज्ञान है जिसे आधुनिक समय के विज्ञान आर्किटेक्चर का प्राचीन स्वरुप माना जा सकता है। जीवन में जिन वस्तुओं का हमारे दैनिक जीवन में उपयोग होता है उन वस्तुओं को किस प्रकार से रखा जाए वह भी वास्तु है वस्तु शब्द से वास्तु का निर्माण हुआ हैवास्तु पुरुष की अवधारणाडिजाइन दिशात्मक संरेखण के आधार पर कर रहे हैं। यह हिंदू वास्तुकला में लागू किया जाता है, हिंदू मंदिरों के लिये और वाहनों सहित, बर्तन, फर्नीचर, मूर्तिकला, चित्रों, आदि।दक्षिण भारत में वास्तु का नींव परंपरागत महान साधु मायन को जिम्मेदार माना जाता है और उत्तर भारत में विश्वकर्मा को जिम्मेदार माना जाता है।वास्तुशास्त्र एवं दिशाएं संपादित करेंवास्तुशास्त्र एवं दिशाएंउत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम ये चार मूल दिशाएं हैं। वास्तु विज्ञान में इन चार दिशाओं के अलावा 4 विदिशाएं हैं। आकाश और पाताल को भी इसमें दिशा स्वरूप शामिल किया गया है। इस प्रकार चार दिशा, चार विदिशा और आकाश पाताल को जोड़कर इस विज्ञान में दिशाओं की संख्या कुल दस माना गया है। मूल दिशाओं के मध्य की दिशा ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य को विदिशा कहा गया है।वास्तुशास्त्र में पूर्व दिशा संपादित करेंवास्तुशास्त्र में यह दिशा बहुत ही महत्वपूर्ण मानी गई है क्योंकि यह सूर्य के उदय होने की दिशा है। इस दिशा के स्वामी देवता इन्द्र हैं। भवन बनाते समय इस दिशा को सबसे अधिक खुला रखना चाहिए। यह सुख और समृद्धि कारक होता है। इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर भवन में रहने वाले लोग बीमार रहते हैं। परेशानी और चिन्ता बनी रहती हैं। उन्नति के मार्ग में भी बाधा आति है।वास्तुशास्त्र में आग्नेय दिशासंपादित करेंपूर्व और दक्षिण के मध्य की दिशा को आग्नेय दिशा कहते हैं। अग्निदेव इस दिशा के स्वामी हैं। इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर का वातावरण अशांत और तनावपूर्ण रहता है। धन की हानि होती है। मानसिक परेशानी और चिन्ता बनी रहती है। यह दिशा शुभ होने पर भवन में रहने वाले उर्जावान और स्वास्थ रहते हैं। इस दिशा में रसोईघर का निर्माण वास्तु की दृष्टि से श्रेष्ठ होता है। अग्नि से सम्बन्धित सभी कार्य के लिए यह दिशा शुभ होता है।वास्तुशास्त्र में दक्षिण दिशासंपादित करेंइस दिशा के स्वामी यम देव हैं। यह दिशा वास्तुशास्त्र में सुख और समृद्धि का प्रतीक होता है। इस दिशा को खाली नहीं रखना चाहिए। दक्षिण दिशा में वास्तु दोष होने पर मान सम्मान में कमी एवं रोजी रोजगार में परेशानी का सामना करना होता है। गृहस्वामी के निवास के लिए यह दिशा सर्वाधिक उपयुक्त होता है।वास्तुशास्त्र में नैऋत्य दिशासंपादित करेंदक्षिण और पश्चिम के मध्य की दिशा को नैऋत्य दिशा कहते हैं। इस दिशा का वास्तुदोष दुर्घटना, रोग एवं मानसिक अशांति देता है। यह आचरण एवं व्यवहार को भी दूषित करता है। भवन निर्माण करते समय इस दिशा को भारी रखना चाहिए। इस दिशा का स्वामी राक्षस है। यह दिशा वास्तु दोष से मुक्त होने पर भवन में रहने वाला व्यक्ति सेहतमंद रहता है एवं उसके मान सम्मान में भी वृद्धि होती है।वास्तुशास्त्र में ईशान दिशासंपादित करेंईशान दिशा के स्वामी शिव होते हैं, इस दिशा में कभी भी शोचालय नहीं बनाना चाहिये!नलकुप, कुंआ आदि इस दिशा में बनाने से जल प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है।सन्दर्भसंपादित करें↑ "वास्तुशास्त्र विभाग, संस्कृत विद्यापीठ , नई दिल्ली". मूल से 12 अगस्त 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 अगस्त 2017.इन्हें भी देखेंसंपादित करेंवास्तुकला (आर्किटेक्चर)BAL Vnita mahila ashramशिल्पशास्त्रभारतीय स्थापत्यकलाबाहरी कड़ियाँसंपादित करेंस्थापत्य वेद - यहाँ सभी प्रमुख स्थापत्य वेद देवनागरी में उपलब्ध हैं।वास्तुविद्या के अनुसार भवन में कक्षों में का उपयुक्त स्थान (अखण्ड ज्योति १९९९)रूपमण्डनम् (वास्तुशास्त्र का संस्कृत ग्रंथ) (गूगल पुस्तक ; व्याख्याता - बलराम श्रीवास्तव)क्या है वास्तु ? (पंजाबकेसरी)आपके घर की वास्तु विशेषताएंआपके सपनों के घर में वास्तु की भूमिकाVnita Kasnia घर के लिए वास्तुवास्तु अनुसार टॉयलेट टिप्स और उपायLast edited 10 days ago By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबRELATED PAGESपूर्ववास्तुकलावास्तुकलाहिन्दू मन्दिर वास्तुकलाधार्मिक स्थलसामग्री CC BY-SA 3.0 By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबके अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो।गोपनीयता नीति उपयोग की शर्तेंडेस्कटॉप
वास्तु शास्त्र
यह लेख एक आधार है। जानकारी जोड़कर इसे बढ़ाने में विकिपीडिया की मदद करें। |
संस्कृत में कहा गया है कि... गृहस्थस्य क्रियास्सर्वा न सिद्धयन्ति गृहं विना। [1]वास्तु शास्त्र घर, प्रासाद, भवन अथवा मन्दिर निर्माण करने का प्राचीन भारतीय विज्ञान है जिसे आधुनिक समय के विज्ञान आर्किटेक्चर का प्राचीन स्वरुप माना जा सकता है। जीवन में जिन वस्तुओं का हमारे दैनिक जीवन में उपयोग होता है उन वस्तुओं को किस प्रकार से रखा जाए वह भी वास्तु है वस्तु शब्द से वास्तु का निर्माण हुआ है
डिजाइन दिशात्मक संरेखण के आधार पर कर रहे हैं। यह हिंदू वास्तुकला में लागू किया जाता है, हिंदू मंदिरों के लिये और वाहनों सहित, बर्तन, फर्नीचर, मूर्तिकला, चित्रों, आदि।
दक्षिण भारत में वास्तु का नींव परंपरागत महान साधु मायन को जिम्मेदार माना जाता है और उत्तर भारत में विश्वकर्मा को जिम्मेदार माना जाता है।
वास्तुशास्त्र एवं दिशाएं संपादित करें
उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम ये चार मूल दिशाएं हैं। वास्तु विज्ञान में इन चार दिशाओं के अलावा 4 विदिशाएं हैं। आकाश और पाताल को भी इसमें दिशा स्वरूप शामिल किया गया है। इस प्रकार चार दिशा, चार विदिशा और आकाश पाताल को जोड़कर इस विज्ञान में दिशाओं की संख्या कुल दस माना गया है। मूल दिशाओं के मध्य की दिशा ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य को विदिशा कहा गया है।
वास्तुशास्त्र में पूर्व दिशा संपादित करें
वास्तुशास्त्र में यह दिशा बहुत ही महत्वपूर्ण मानी गई है क्योंकि यह सूर्य के उदय होने की दिशा है। इस दिशा के स्वामी देवता इन्द्र हैं। भवन बनाते समय इस दिशा को सबसे अधिक खुला रखना चाहिए। यह सुख और समृद्धि कारक होता है। इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर भवन में रहने वाले लोग बीमार रहते हैं। परेशानी और चिन्ता बनी रहती हैं। उन्नति के मार्ग में भी बाधा आति है।
वास्तुशास्त्र में आग्नेय दिशासंपादित करें
पूर्व और दक्षिण के मध्य की दिशा को आग्नेय दिशा कहते हैं। अग्निदेव इस दिशा के स्वामी हैं। इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर का वातावरण अशांत और तनावपूर्ण रहता है। धन की हानि होती है। मानसिक परेशानी और चिन्ता बनी रहती है। यह दिशा शुभ होने पर भवन में रहने वाले उर्जावान और स्वास्थ रहते हैं। इस दिशा में रसोईघर का निर्माण वास्तु की दृष्टि से श्रेष्ठ होता है। अग्नि से सम्बन्धित सभी कार्य के लिए यह दिशा शुभ होता है।
वास्तुशास्त्र में दक्षिण दिशासंपादित करें
इस दिशा के स्वामी यम देव हैं। यह दिशा वास्तुशास्त्र में सुख और समृद्धि का प्रतीक होता है। इस दिशा को खाली नहीं रखना चाहिए। दक्षिण दिशा में वास्तु दोष होने पर मान सम्मान में कमी एवं रोजी रोजगार में परेशानी का सामना करना होता है। गृहस्वामी के निवास के लिए यह दिशा सर्वाधिक उपयुक्त होता है।
वास्तुशास्त्र में नैऋत्य दिशासंपादित करें
दक्षिण और पश्चिम के मध्य की दिशा को नैऋत्य दिशा कहते हैं। इस दिशा का वास्तुदोष दुर्घटना, रोग एवं मानसिक अशांति देता है। यह आचरण एवं व्यवहार को भी दूषित करता है। भवन निर्माण करते समय इस दिशा को भारी रखना चाहिए। इस दिशा का स्वामी राक्षस है। यह दिशा वास्तु दोष से मुक्त होने पर भवन में रहने वाला व्यक्ति सेहतमंद रहता है एवं उसके मान सम्मान में भी वृद्धि होती है।
वास्तुशास्त्र में ईशान दिशासंपादित करें
ईशान दिशा के स्वामी शिव होते हैं, इस दिशा में कभी भी शोचालय नहीं बनाना चाहिये!नलकुप, कुंआ आदि इस दिशा में बनाने से जल प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है।
सन्दर्भसंपादित करें
- ↑ "वास्तुशास्त्र विभाग, संस्कृत विद्यापीठ , नई दिल्ली". मूल से 12 अगस्त 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 अगस्त 2017.
इन्हें भी देखेंसंपादित करें
बाहरी कड़ियाँसंपादित करें
- स्थापत्य वेद - यहाँ सभी प्रमुख स्थापत्य वेद देवनागरी में उपलब्ध हैं।
- वास्तुविद्या के अनुसार भवन में कक्षों में का उपयुक्त स्थान (अखण्ड ज्योति १९९९)
- रूपमण्डनम् (वास्तुशास्त्र का संस्कृत ग्रंथ) (गूगल पुस्तक ; व्याख्याता - बलराम श्रीवास्तव)
- क्या है वास्तु ? (पंजाबकेसरी)
- आपके घर की वास्तु विशेषताएं
- आपके सपनों के घर में वास्तु की भूमिका
- Vnita Kasnia घर के लिए वास्तु
- वास्तु अनुसार टॉयलेट टिप्स और उपाय
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