. "दो पहलू"By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब देखने या करने में एक से लगने वाले कार्यपर निर्भर करता है कि उसे करने वाले का भाव क्या है ? हम अपनी बेटी, माँ या पत्नी से आलिंगनबद्ध होकर मिलते हैं। देखने में तीनों क्रियाएँ एक सी हैं। लेकिन मिलने के भाव में जमीन-आसमान का फर्क है। बेटी से जब हम आलिंगन करते हैं तो हमारा भाव वात्सल्य देने का होता है। माँ से जब हम आलिंगनबद्ध होते हैं तब हमारा भाव वात्सल्य पाने का होता है और जब पत्नी से आलिंगन करते हैं तब हमारा माधुर्य भाव होता है। इसी प्रकार एक डॉक्टर द्वारा पेट फाड़ना और एक बदमाश द्वारा पेट फाड़ना दोनों क्रियाएँ एक ही हैं किन्तु दोनों का भाव अलग-अलग है। डॉक्टर जीवन देने के लिये पेट फाड़ता है और बदमाश जीवन लेने के लिये। कुछ इसी तरह गोपालजी का विग्रह रखने वालों के भी भाव अलग-अलग होते हैं। किसी को केवल ठाकुरजी के दर्शन की लालसा होती है तो किसी को ठाकुरजी की सेवा की लालसा होती है। कोई उनसे कुछ पाने के लिये लाता है तो कोई उन्हें कुछ देने के लिये लाता है। किसी का भाव होता है कि विग्रह आने से ठाकुरजी हमारे घर में बने रहेंगे, हम पर कृपा करते रहेंगे, कोई संकट नहीं आने देंगे, हमारे दुख दूर करते रहेंगे। किसी का भाव केवल इतना होता है कि हमारे पड़ोस में मिसेज शर्मा के घर घर में ठाकुरजी का विग्रह है तो हमारे घर में भी होना चाहिये। हम भी ठाकुरजी को रखेंगे, हम किसी से कम हैं क्या ? अरे ! हजार दो हजार का खर्चा ही तो होगा। हमारी भी शान बनी रहेगी। जिस तरह घर में और अनेकों शोपीस रखें हैं वह भी रखें रहेंगे, उनको भी सजा दिया करेंगे, लाईटें लगा दिया करेंगे। जब आने-जाने वाले देखेंगे तो अच्छा लगेगा। इसलिये यदि आप श्री विग्रह विराजमान करशा चाहते हैं तो पहले अपने अन्दर के भावों को टटोलिये। जो लोग उनकी सेवा कर भी रहे हैं वे भी अपने अन्दर के भाव को टटोलें कि वे किस दृष्टि से सेवा कर रहे हैं। यद्यपि ठाकुरजी के श्रीविग्रह की बात ही कुछ अलग है। उनमें एक विशेष आकर्षण है। उनके श्रीविग्रह की सेवा यदि की जाय तो निश्चित ही एक न एक दिन हमारे अन्दर भगवत् सेवा के संस्कार पैदा हो ही जायेंगे। एक सच्चे साधक का प्रमुख लक्ष्य सेवा द्वारा, भजन द्वारा श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाना होता है और इस शरीर की शान्ति के बाद चिन्मय शरीर द्वारा उनको सुख पहुँचाने वाली चरण सेवा प्राप्त करना होता है। यही मुख्य भाव होना चाहिये यदि इसके अतिरिक्त और कोई भाव है तो उसमें धीरे-धीरे सुधार करना चाहिये। ----------:::×:::---------- "जय जय श्री राधे"********************************************
. "दो पहलू"
By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब
देखने या करने में एक से लगने वाले कार्यपर निर्भर करता है कि उसे करने वाले का भाव क्या है ?
हम अपनी बेटी, माँ या पत्नी से आलिंगनबद्ध होकर मिलते हैं। देखने में तीनों क्रियाएँ एक सी हैं। लेकिन मिलने के भाव में जमीन-आसमान का फर्क है। बेटी से जब हम आलिंगन करते हैं तो हमारा भाव वात्सल्य देने का होता है। माँ से जब हम आलिंगनबद्ध होते हैं तब हमारा भाव वात्सल्य पाने का होता है और जब पत्नी से आलिंगन करते हैं तब हमारा माधुर्य भाव होता है। इसी प्रकार एक डॉक्टर द्वारा पेट फाड़ना और एक बदमाश द्वारा पेट फाड़ना दोनों क्रियाएँ एक ही हैं किन्तु दोनों का भाव अलग-अलग है। डॉक्टर जीवन देने के लिये पेट फाड़ता है और बदमाश जीवन लेने के लिये।
कुछ इसी तरह गोपालजी का विग्रह रखने वालों के भी भाव अलग-अलग होते हैं। किसी को केवल ठाकुरजी के दर्शन की लालसा होती है तो किसी को ठाकुरजी की सेवा की लालसा होती है। कोई उनसे कुछ पाने के लिये लाता है तो कोई उन्हें कुछ देने के लिये लाता है।
किसी का भाव होता है कि विग्रह आने से ठाकुरजी हमारे घर में बने रहेंगे, हम पर कृपा करते रहेंगे, कोई संकट नहीं आने देंगे, हमारे दुख दूर करते रहेंगे। किसी का भाव केवल इतना होता है कि हमारे पड़ोस में मिसेज शर्मा के घर घर में ठाकुरजी का विग्रह है तो हमारे घर में भी होना चाहिये। हम भी ठाकुरजी को रखेंगे, हम किसी से कम हैं क्या ? अरे ! हजार दो हजार का खर्चा ही तो होगा। हमारी भी शान बनी रहेगी। जिस तरह घर में और अनेकों शोपीस रखें हैं वह भी रखें रहेंगे, उनको भी सजा दिया करेंगे, लाईटें लगा दिया करेंगे। जब आने-जाने वाले देखेंगे तो अच्छा लगेगा।
इसलिये यदि आप श्री विग्रह विराजमान करशा चाहते हैं तो पहले अपने अन्दर के भावों को टटोलिये। जो लोग उनकी सेवा कर भी रहे हैं वे भी अपने अन्दर के भाव को टटोलें कि वे किस दृष्टि से सेवा कर रहे हैं। यद्यपि ठाकुरजी के श्रीविग्रह की बात ही कुछ अलग है। उनमें एक विशेष आकर्षण है। उनके श्रीविग्रह की सेवा यदि की जाय तो निश्चित ही एक न एक दिन हमारे अन्दर भगवत् सेवा के संस्कार पैदा हो ही जायेंगे।
एक सच्चे साधक का प्रमुख लक्ष्य सेवा द्वारा, भजन द्वारा श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाना होता है और इस शरीर की शान्ति के बाद चिन्मय शरीर द्वारा उनको सुख पहुँचाने वाली चरण सेवा प्राप्त करना होता है। यही मुख्य भाव होना चाहिये यदि इसके अतिरिक्त और कोई भाव है तो उसमें धीरे-धीरे सुधार करना चाहिये।
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"जय जय श्री राधे"
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