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कोणार्क सूर्य मंदिर By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबकिसी अन्य भाषा में पढ़ेंध्यान रखेंसंपादित करें यह लेख आज का आलेख के लिए निर्वाचित हुआ है। अधिक जानकारी हेतु क्लिक करें।यह लेख निर्वाचित लेख बनने के लिए परखने हेतु रखा गया है। अधिक जानकारी के लिए निर्वाचित लेख आवश्यकताएँ देखें।कोणार्क सूर्य मन्दिर भारत में उड़ीसा राज्य में जगन्नाथ पुरी से ३५ किमी उत्तर-पूर्व में कोणार्क नामक शहर में प्रतिष्ठित है। यह भारतवर्ष के चुनिन्दा सूर्य मन्दिरों में से एक है। सन् १९८४ में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी है। इस मन्दिर की भावनाओ को यंहा के पत्थरों पर किये गए उत्कृष्ट नकासी ही बता देता हैयुनेस्को विश्व धरोहर स्थलकोणार्क सूर्य मंदिरविश्व धरोहर सूची में अंकित नामKONARK SUN Temple.jpgदेश भारतप्रकार सांस्कृतिकमानदंड i, iii, viसन्दर्भ 246युनेस्को क्षेत्र एशिया प्रशांतशिलालेखित इतिहासशिलालेख 1984 (आठवां सत्र)पौराणिक महत्त्वयह मन्दिर सूर्य देव को समर्पित था, जिन्हें स्थानीय लोग 'बिरंचि-नारायण' कहते थे। इसी कारण इस क्षेत्र को उसे अर्क-क्षेत्र (अर्क=सूर्य) या पद्म-क्षेत्र कहा जाता था। पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब को उनके श्राप से कोढ़ रोग हो गया था। साम्ब ने मित्रवन में चंद्रभागा नदी के सागर संगम पर कोणार्क में, बारह वर्षों तक तपस्या की और सूर्य देव को प्रसन्न किया था। सूर्यदेव, जो सभी रोगों के नाशक थे, ने इसके रोग का भी निवारण कर दिया था। तदनुसार साम्ब ने सूर्य भगवान का एक मन्दिर निर्माण का निश्चय किया। अपने रोग-नाश के उपरांत, चंद्रभागा नदी में स्नान करते हुए, उसे सूर्यदेव की एक मूर्ति मिली। यह मूर्ति सूर्यदेव के शरीर के ही भाग से, देवशिल्पी श्री विश्वकर्मा ने बनायी थी। साम्ब ने अपने बनवाये मित्रवन में एक मन्दिर में, इस मूर्ति को स्थापित किया, तब से यह स्थान पवित्र माना जाने लगा।पूर्वी कोने से मन्दिर का दृष्यइतिहासकोणार्क में पाषाण कलायह कई इतिहासकारों का मत है, कि कोणार्क मंदिर के निर्माणकर्ता, राजा लांगूल नृसिंहदेव की अकाल मृत्यु के कारण, मंदिर का निर्माण कार्य खटाई में पड़ गया। इसके परिणामस्वरूप, अधूरा ढांचा ध्वस्त हो गया।[1] लेकिन इस मत को एतिहासिक आंकड़ों का समर्थन नहीं मिलता है। पुरी के मदल पंजी के आंकड़ों के अनुसार और कुछ १२७८ ई. के ताम्रपत्रों से पता चला, कि राजा लांगूल नृसिंहदेव ने १२८२ तक शासन किया। कई इतिहासकार, इस मत के भी हैं, कि कोणार्क मंदिर का निर्माण १२५३ से १२६० ई. के बीच हुआ था। अतएव मंदिर के अपूर्ण निर्माण का इसके ध्वस्त होने का कारण होना तर्कसंगत नहीं है।स्थापत्यमुख्य मन्दिर तीन मंडपों में बना है। इनमें से दो मण्डप ढह चुके हैं।(बाएँ) मन्दिर का मूलरूप तथा अवशेष वर्तमान रूप (हल्के पीले में) ; (दाएँ) मन्दिर का आधार (प्लान) (बाएँ) मन्दिर का मूलरूप तथा अवशेष वर्तमान रूप (हल्के पीले में) ; (दाएँ) मन्दिर का आधार (प्लान)(बाएँ) मन्दिर का मूलरूप तथा अवशेष वर्तमान रूप (हल्के पीले में) ; (दाएँ) मन्दिर का आधार (प्लान)कोणार्क शब्द, 'कोण' और 'अर्क' शब्दों के मेल से बना है। अर्क का अर्थ होता है सूर्य, जबकि कोण से अभिप्राय कोने या किनारे से रहा होगा। प्रस्तुत कोणार्क सूर्य-मन्दिर का निर्माण लाल रंग के बलुआ पत्थरों तथा काले ग्रेनाइट के पत्थरों से हुआ है। इसे १२३६–१२६४ ईसा पूर्व गंग वंश के तत्कालीन सामंत राजा नृसिंहदेव द्वारा बनवाया गया था।[2] यह मन्दिर, भारत के सबसे प्रसिद्ध स्थलों में से एक है। इसे युनेस्को द्वारा सन् १९८४ में विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया है।[3][4]कलिंग शैली में निर्मित इस मन्दिर में सूर्य देव(अर्क) को रथ के रूप में विराजमान किया गया है तथा पत्थरों को उत्कृष्ट नक्काशी के साथ उकेरा गया है। सम्पूर्ण मन्दिर स्थल को बारह जोड़ी चक्रों के साथ सात घोड़ों से खींचते हुये निर्मित किया गया है, जिसमें सूर्य देव को विराजमान दिखाया गया है। परन्तु वर्तमान में सातों में से एक ही घोड़ा बचा हुआ है। मन्दिर के आधार को सुन्दरता प्रदान करते ये बारह चक्र साल के बारह महीनों को परिभाषित करते हैं तथा प्रत्येक चक्र आठ अरों से मिल कर बना है, जो अर दिन के आठ पहरों को दर्शाते हैं।[3][4] यहाॅं पर स्थानीय लोग प्रस्तुत सूर्य-भगवान को बिरंचि-नारायण कहते थे।मुख्य मन्दिर तीन मंडपों में बना है। इनमें से दो मण्डप ढह चुके हैं। तीसरे मण्डप में जहाँ मूर्ती थी, अंग्रेज़ों ने स्वतंत्रता से पूर्व ही रेत व पत्थर भरवा कर सभी द्वारों को स्थायी रूप से बंद करवा दिया था ताकि वह मन्दिर और क्षतिग्रस्त ना हो पाए।[4] इस मन्दिर में सूर्य भगवान की तीन प्रतिमाएं हैं:बाल्यावस्था-उदित सूर्य- ८ फीटयुवावस्था-मध्याह्न सूर्य- ९.५ फीटप्रौढ़ावस्था-अपराह्न सूर्य-३.५ फीट[4]इसके प्रवेश पर दो सिंह हाथियों पर आक्रामक होते हुए रक्षा में तत्पर दिखाये गए हैं। दोनों हाथी, एक-एक मानव के ऊपर स्थापित हैं। ये प्रतिमाएं एक ही पत्थर की बनीं हैं। ये २८ टन की ८.४फीट लंबी ४.९ फीट चौड़ी तथा ९.२ फीट ऊंची हैं। मंदिर के दक्षिणी भाग में दो सुसज्जित घोड़े बने हैं, जिन्हें उड़ीसा सरकार ने अपने राजचिह्न के रूप में अंगीकार कर लिया है। ये १० फीट लंबे व ७ फीट चौड़े हैं। मंदिर सूर्य देव की भव्य यात्रा को दिखाता है। इसके के प्रवेश द्वार पर ही नट मंदिर है। ये वह स्थान है, जहां मंदिर की नर्तकियां, सूर्यदेव को अर्पण करने के लिये नृत्य किया करतीं थीं। पूरे मंदिर में जहां तहां फूल-बेल और ज्यामितीय नमूनों की नक्काशी की गई है। इनके साथ ही मानव, देव, गंधर्व, किन्नर आदि की अकृतियां भी एन्द्रिक मुद्राओं में दर्शित हैं। इनकी मुद्राएं कामुक हैं और कामसूत्र से लीं गईं हैं। मंदिर अब अंशिक रूप से खंडहर में परिवर्तित हो चुका है। यहां की शिल्प कलाकृतियों का एक संग्रह, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के सूर्य मंदिर संग्रहालय में सुरक्षित है। महान कवि व नाटकार रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इस मन्दिर के बारे में लिखा है:- कोणार्क जहां पत्थरों की भाषा मनुष्य की भाषा से श्रेष्ठतर है।तेरहवीं सदी का मुख्य सूर्य मंदिर, एक महान रथ रूप में बना है, जिसके बारह जोड़ी सुसज्जित पहिए हैं, एवं सात घोड़ों द्वारा खींचा जाता है।[4] यह मंदिर भारत के उत्कृष्ट स्मारक स्थलों में से एक है। यहां के स्थापत्य अनुपात दोषों से रहित एवं आयाम आश्चर्यचकित करने वाले हैं। यहां की स्थापत्यकला वैभव एवं मानवीय निष्ठा का सौहार्दपूर्ण संगम है। मंदिर की प्रत्येक इंच, अद्वितीय सुंदरता और शोभा की शिल्पाकृतियों से परिपूर्ण है। इसके विषय भी मोहक हैं, जो सहस्रों शिल्प आकृतियां भगवानों, देवताओं, गंधर्वों, मानवों, वाद्यकों, प्रेमी युगलों, दरबार की छवियों, शिकार एवं युद्ध के चित्रों से भरी हैं। इनके बीच बीच में पशु-पक्षियों (लगभग दो हज़ार हाथी, केवल मुख्य मंदिर के आधार की पट्टी पर भ्रमण करते हुए) और पौराणिक जीवों, के अलावा महीन और पेचीदा बेल बूटे तथा ज्यामितीय नमूने अलंकृत हैं। उड़िया शिल्पकला की हीरे जैसी उत्कृष्त गुणवत्ता पूरे परिसर में अलग दिखाई देती है।कामुक मुद्राओं की शिल्प आकृतियह मंदिर अपनी कामुक मुद्राओं वाली शिल्पाकृतियों के लिये भी प्रसिद्ध है।[5] इस प्रकार की आकृतियां मुख्यतः द्वारमण्डप के द्वितीय स्तर पर मिलती हैं। इस आकृतियों का विषय स्पष्ट किंतु अत्यंत कोमलता एवं लय में संजो कर दिखाया गया है। जीवन का यही दृष्टिकोण, कोणार्क के अन्य सभी शिल्प निर्माणों में भी दिखाई देता है। हजारों मानव, पशु एवं दिव्य लोग इस जीवन रूपी मेले में कार्यरत हुए दिखाई देते हैं, जिसमें आकर्षक रूप से एक यथार्थवाद का संगम किया हुआ है। यह उड़ीसा की सर्वोत्तम कृति है। इसकी उत्कृष्ट शिल्प-कला, नक्काशी, एवं पशुओं तथा मानव आकृतियों का सटीक प्रदर्शन, इसे अन्य मंदिरों से कहीं बेहतर सिद्ध करता है।यह सूर्य मन्दिर भारतीय मन्दिरों की कलिंग शैली का है, जिसमें कोणीय अट्टालिका (मीनार रूपी) के ऊपर मण्डप की तरह छतरी ढकी होती है। आकृति में, यह मंदिर उड़ीसा के अन्य शिखर मंदिरों से खास भिन्न नहीं लगता है। २२९ फीट ऊंचा मुख्य गर्भगृह १२८ फीट ऊंची नाट्यशाला के साथ ही बना है। इसमें बाहर को निकली हुई अनेक आकृतियां हैं। मुख्य गर्भ में प्रधान देवता का वास था, किंतु वह अब ध्वस्त हो चुका है। नाट्यशाला अभी पूरी बची है। नट मंदिर एवं भोग मण्डप के कुछ ही भाग ध्वस्त हुए हैं। मंदिर का मुख्य प्रांगण ८५७ फीट X ५४० फीट का है। यह मंदिर पूर्व –पश्चिम दिशा में बना है। मंदिर प्राकृतिक हरियाली से घिरा हुआ है। इसमें कैज़ुएरिना एवं अन्य वृक्ष लगे हैं, जो कि रेतीली भूमि पर उग जाते हैं। यहां भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा बनवाया उद्यान है।[2]कथा एवं किंवदन्तियाँकोणार्क सूर्य मंदिर – २००६कोणार्क मंदिर – रात मेंएक कथा के अनुसार, गंग वंश के राजा नृसिंह देव प्रथम ने अपने वंश का वर्चस्व सिद्ध करने हेतु, राजसी घोषणा से मंदिर निर्माण का आदेश दिया। बारह सौ वास्तुकारों और कारीगरों की सेना ने अपनी सृजनात्मक प्रतिभा और ऊर्जा से परिपूर्ण कला से बारह वर्षों की अथक मेहनत से इसका निर्माण किया। राजा ने पहले ही अपने राज्य के बारह वर्षों की कर-प्राप्ति के बराबर धन व्यय कर दिया था। लेकिन निर्माण की पूर्णता कहीं दिखायी नहीं दे रही थी। तब राजा ने एक निश्चित तिथि तक कार्य पूर्ण करने का कड़ा आदेश दिया। बिसु महाराणा के पर्यवेक्षण में, इस वास्तुकारों की टीम ने पहले ही अपना पूरा कौशल लगा रखा था। तब बिसु महाराणा का बारह वर्षीय पुत्र, धर्म पाद आगे आया। उसने तब तक के निर्माण का गहन निरीक्षण किया, हालांकि उसे मंदिर निर्माण का व्यवहारिक ज्ञान नहीं था, परन्तु उसने मंदिर स्थापत्य के शास्त्रों का पूर्ण अध्ययन किया हुआ था। उसने मंदिर के अंतिम केन्द्रीय शिला को लगाने की समस्या सुझाव का प्रस्ताव दिया। उसने यह करके सबको आश्चर्य में डाल दिया। लेकिन इसके तुरन्त बाद ही इस विलक्षण प्रतिभावान का शव सागर तट पर मिला। कहते हैं, कि धर्मपाद ने अपनी जाति के हितार्थ अपनी जान तक दे दी।[1]By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबध्वंस सम्बन्धी किंवदन्तियाँयहाँ पर मन्दिर की ध्वस्तता के सम्पूर्ण कारणों का उल्लेख करना जटिल कार्य से कम नहीं है। परन्तु यह सर्वविदित है कि अब इसका काफी भाग ध्वस्त हो चुका है। जिसके मुख्य कारण वास्तु दोष भी कहा जाता है परन्तु मुस्लिम आक्रमणों की भूमिका अहम रही है।वास्तु दोषकहा जाता है कि यह मन्दिर अपने वास्तु दोषों के कारण मात्र ८०० वर्षों में क्षीण हो गया था। जिसे वास्तु कला व नियमों के विरुद्ध कहा-सुना जाता है। इसी कारणवश यह अपनी समयावधि से पहले ही ऋगवेदकाल एवम् पाषाण कला का अनुपम उदाहरण होते हुए भी धराशायी हो गया।[1] इस सूर्य-मन्दिर के मुख्य वास्तु दोष हैं:-।[4]मंदिर का निर्माण रथ आकृति होने से पूर्व, दिशा, एवं आग्नेय एवं ईशान कोण खंडित हो गए।पूर्व से देखने पर पता लगता है, कि ईशान एवं आग्नेय कोणों को काटकर यह वायव्य एवं नैऋर्त्य कोणों की ओर बढ़ गया है।प्रधान मंदिर के पूर्वी द्वार के सामने नृत्यशाला है, जिससे पूर्वी द्वार अवरोधित होने के कारण अनुपयोगी सिद्ध होता है।नैऋर्त्य कोण में छायादेवी के मंदिर की नींव प्रधानालय से अपेक्षाकृत नीची है। उससे नैऋर्त्य भाग में मायादेवी का मंदिर और नीचा है।आग्नेय क्षेत्र में विशाल कुआं स्थित है।दक्षिण एवं पूर्व दिशाओं में विशाल द्वार हैं, जिस कारण मंदिर का वैभव एवं ख्याति क्षीण हो गई हैं।चुम्बकीय पत्थरकई कथाओं के अनुसार, सूर्य मन्दिर के शिखर पर एक चुम्बकीय पत्थर लगा है। इसके प्रभाव से, कोणार्क के समुद्र से गुजरने वाले सागरपोत, इस ओर खिंचे चले आते हैं, जिससे उन्हें भारी क्षति हो जाती है। अन्य कथा अनुसार, इस पत्थर के कारण पोतों के चुम्बकीय दिशा निरूपण यंत्र सही दिशा नहीं बताते। इस कारण अपने पोतों को बचाने हेतु, मुस्लिम नाविक इस पत्थर को निकाल ले गये। यह पत्थर एक केन्द्रीय शिला का कार्य कर रहा था, जिससे मंदिर की दीवारों के सभी पत्थर संतुलन में थे। इसके हटने के कारण, मंदिर की दीवारों का संतुलन खो गया और परिणामतः वे गिर पड़ीं। परन्तु इस घटना का कोई ऐतिहासिक विवरण नहीं मिलता, ना ही ऐसे किसी चुम्बकीय केन्द्रीय पत्थर के अस्तित्व का कोई ब्यौरा उपलब्ध है।[3][1]कालापहाड़सूर्य देव की एक शिल्पाकृति- कोणार्क में सूर्यदेवकोणार्क मंदिर के गिरने से सम्बन्धी एक अति महत्वपूर्ण सिद्धांत, कालापहाड से जुड़ा है। उड़ीसा के इतिहास के अनुसार कालापहाड़ ने सन १५०८ में यहां आक्रमण किया और कोणार्क मंदिर समेत उड़ीसा के कई हिन्दू मंदिर ध्वस्त कर दिये। पुरी के जगन्नाथ मंदिर के मदन पंजी बताते हैं, कि कैसे कालापहाड़ ने उड़ीसा पर हमला किया। कोणार्क मंदिर सहित उसने अधिकांश हिन्दू मंदिरों की प्रतिमाएं भी ध्वस्त करीं। हालांकि कोणार्क मंदिर की २०-२५ फीट मोटी दीवारों को तोड़ना असम्भव था, उसने किसी प्रकार से दधिनौति (मेहराब की शिला) को हिलाने का प्रयोजन कर लिया, जो कि इस मंदिर के गिरने का कारण बना। दधिनौति के हटने के कारण ही मन्दिर धीरे-धीरे गिरने लगा तथा छत से भारी पत्थर गिरने से, मूकशाला की छत भी ध्वस्त हो गयी। उसने यहाँ की अधिकांश मूर्तियां और कोणार्क के अन्य कई मंदिर भी ध्वस्त कर दिये।[1]पूजा-अर्चना सम्बन्धी बाधाएँसन् १५६८ में उड़ीसा में मुस्लिमों का आतंक नियंत्रण में हो चुका था। परन्तु इसके बाद भी हिन्दू मन्दिरों को तोड़ने के निरंतर प्रयास होते रहे।[6] इस समय पुरी के जगन्नाथ मन्दिर के पंडों ने भगवान जगन्नाथ जी की मूर्ति को श्रीमन्दिर से हटाकर किसी गुप्त स्थान पर छुपा दिया था। इसी प्रकार, कोणार्क के सूर्य मंन्दिर के पंडों ने प्रधान देवता की मूर्ति को हटा कर, वर्षों तक रेत में दबा कर छिपाये रखा। बाद में, यह मूर्ति पुरी भेज दी गयी और वहां जगन्नाथ मन्दिर के प्रांगण में स्थित, इंद्र के मन्दिर में रख दी गयी। अन्य लोगों के अनुसार, यहां की पूजा मूर्तियां अभी भी खोजी जानी बाकी हैं। लेकिन कई लोगों का कहना है, कि सूर्य देव की मूर्ति, जो नई दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखी है, वही कोणार्क की प्रधान पूज्य मूर्ति है।फिर भी कोणार्क में, सूर्य वंदना मंदिर से मूर्ति के हटने के बाद से बंद हो गयी। इस कारण कोणार्क में तीर्थयात्रियों का आना जाना बंद हो गया। कोणार्क का पत्तन (बंदरगाह) भी डाकुओं के हमले के कारण, बंद हो गया। कोणार्क सूर्य वंदना के समान ही वाणिज्यिक गतिविधियों हेतु भी एक कीर्तिवान नगर था, परन्तु इन गतिविधियों के बन्द हो जाने के कारण, यह एकदम निर्वासित हो चला और वर्षों तक एक गहन जंगल से ढंक गया।सन १६२६ में, खुर्दा के राजा, नृसिंह देव, सुपुत्र श्री पुरुषोत्तम देव, सूर्यदेव की मूर्ति को दो अन्य सूर्य और चन्द्र की मूर्तियों सहित पुरी ले गये। अब वे पुरी के मंदिर के प्रांगण में मिलती हैं। पुरी के मदल पंजी के इतिहास से ज्ञात होता है, कि सन १०२८ में, राजा नॄसिंहदेव ने कोणार्क के सभी मंदिरों के नाप-जोख का आदेश दिया था। मापन के समय, सूर्य मंदिर अपनी अमलक शिला तक अस्तित्व में था, यानि कि लगभग २०० फीट ऊंचा। कालापहाड़ ने केवल उसका कलश, बल्कि पद्म-ध्वजा, कमल-किरीट और ऊपरी भाग भी ध्वंस किये थे। पहले बताये अनुसार, मुखशाला के सामने, एक बड़ा प्रस्तर खण्ड – नवग्रह पाट, होता था। खुर्दा के तत्कालीन राजा ने वह खण्ड हटवा दिया, साथ ही कोणार्क से कई शिल्प कृत पाषाण भी ले गया। और पुरी के मंदिर के निर्माण में उनका प्रयोग किया था। मराठा काल में, पुरी के मंदिर की चहारदीवारी के निर्माण में कोणार्क के पत्थर प्रयोग किये गये थे। यह भी बताया जाता है, कि नट मंदिर के सभी भाग, सबसे लम्बे काल तक, अपनी मूल अवस्था में रहे हैं। और इन्हें मराठा काल में जान बूझ कर अनुपयोगी भाग समझ कर तोड़ा गया। सन १७७९ में एक मराठा साधू ने कोणार्क के अरुण स्तंभ को हटा कर पुरी के सिंहद्वार के सामने स्थापित करवा दिया। अठ्ठारहवीं शताब्दी के अन्त तक, कोणार्क ने अपना, सारा वैभव खो दिया और एक जंगल में बदल गया। इसके साथ ही मंदिर का क्षेत्र भी जंगल बन गया, जहां जंगली जानवर और डाकुओं के अड्डे थे। यहां स्थानीय लोग भी दिन के प्रकाश तक में जाने से डरते थे।चित्र दीर्घाकोणार्क का सूर्य मंदिर Konark sun temple stone art.jpgइन्हें भी देखें =जगन्नाथ मंदिर, पुरीसूर्य देवसन्दर्भ↑ अ आ इ ई उ "फॉल ऑफ कोणार्क" (अंग्रेज़ी में). राष्ट्रीय सूचना केन्द्र. मूल से 19 जून 2009 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 23 जून 2009.↑ अ आ सन्दर्भ त्रुटि: का गलत प्रयोग; मुसाफिर नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।↑ अ आ इ राष्ट्री. "सूर्य मंदिर कोणार्क". भारत का राष्ट्रीय पोस्टल. मूल से 13 मई 2009 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 23 जून 2009. पाठ "य पोर्टल विषयवस्तुo प्रबंधन दल" की उपेक्षा की गयी (मदद)↑ अ आ इ ई उ ऊ पं.दयानंद शास्त्री. "वास्तु की नजर में-कोणार्क सूर्य मंदिर". फ्यूचर समाचार. मूल से 2 सितंबर 2009 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 23 जून 2009.↑ फुरसतिया. "कोणार्क- जहां पत्थरों की भाषा मनुष्य की भाषा से श्रेष्ठतर है।". मूल (एचटीएम) से 6 नवंबर 2007 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 23 जून 2009. |author-link1= के मान की जाँच करें (मदद)↑ ग्लूम एण्ड ब्लूम- द केस ऑफ जगन्नाथ टेम्पल Archived 10 अप्रैल 2009 at the वेबैक मशीन. (अंग्रेज़ी) orissagov.nic.inबाहरी कड़ियांसूर्य मंदिरों की खोज में (गूगल पुस्तक ; लेखक - डॉ श्याम सिंह 'शशि')कोणार्क मंदिर के चित्र बीबीसी हिन्दी परयुनेस्को विश्व धरोहर सूची पर कोणार्क मंदिर -भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग के जालस्थल पर विश्व धरोहर स्थलों की चित्र दीर्घा360° पैनोग्राफिक चित्र भी सम्मिलित हैं।कोणार्क सूर्य मंदिर – मंदिर एवं नृत्य महोत्सव के वीडियो सम्मिलित हैं।सैकरेड डेस्टिनेशन्स पर कोणार्क सूर्य मंदिर- चित्र एवं जानकारीPadlock-silver-medium.svgLast edited 4 months ago by WikiPantiRELATED PAGESकोणार्कनट मंदिरBal Vnita mahila ashramदेव सूर्य मंदिरदेव सूर्य मंदिर, के नाम से प्रसिद्ध, यह भारतीय राज्य बिहार के औरंगाबाद जिले में देव नामक स्थान पर ससामग्री Vnita Kasnia Punjab CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो।गोपनीयता नीति उपयोग की शर्तेंडेस्कटॉप

कोणार्क सूर्य मंदिर By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब किसी अन्य भाषा में पढ़ें ध्यान रखें संपादित करें यह लेख  निर्वाचित लेख  बनने के लिए  परखने हेतु  रखा गयाहै। अधिक जानकारी के लिए  निर्वाचित लेख आवश्यकताएँ  देखें। कोणार्क सूर्य मन्दिर   भारत  में  उड़ीसा  राज्य में  जगन्नाथ पुरी  से ३५ किमी उत्तर-पूर्व में  कोणार्क  नामक शहर में प्रतिष्ठित है। यह भारतवर्ष के चुनिन्दा  सूर्य मन्दिरों  में से एक है। सन्  १९८४  में  यूनेस्को  ने इसे  विश्व धरोहर स्थल  के रूप में मान्यता दी है। इस मन्दिर की भावनाओ को यंहा के पत्थरों पर किये गए उत्कृष्ट नकासी ही बता देता है युनेस्को विश्व धरोहर स्थल कोणार्क सूर्य मंदिर विश्व धरोहर सूची में अंकित नाम देश   भारत प्रकार सांस्कृतिक मानदंड i, iii, vi सन्दर्भ 246 युनेस्को क्षेत्र एशिया प्रशांत शिलालेखित इतिहास शिलालेख 1984  (आठवां  सत्र ) पौराणिक महत्त्व यह मन्दिर  सूर्य देव  को समर्पित था, जिन्हें स्थानीय लोग 'बिरंचि-नारायण' कहते...

वास्तु शास्त्रBy समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबकिसी अन्य भाषा में पढ़ेंडाउनलोड करेंध्यान रखेंसंपादित करेंStub icon यह लेख एक आधार है। जानकारी जोड़कर इसे बढ़ाने में विकिपीडिया की मदद करें।संस्कृत में कहा गया है कि... गृहस्थस्य क्रियास्सर्वा न सिद्धयन्ति गृहं विना। [1]वास्तु शास्त्र घर, प्रासाद, भवन अथवा मन्दिर निर्माण करने का प्राचीन भारतीय विज्ञान है जिसे आधुनिक समय के विज्ञान आर्किटेक्चर का प्राचीन स्वरुप माना जा सकता है। जीवन में जिन वस्तुओं का हमारे दैनिक जीवन में उपयोग होता है उन वस्तुओं को किस प्रकार से रखा जाए वह भी वास्तु है वस्तु शब्द से वास्तु का निर्माण हुआ हैवास्तु पुरुष की अवधारणाडिजाइन दिशात्मक संरेखण के आधार पर कर रहे हैं। यह हिंदू वास्तुकला में लागू किया जाता है, हिंदू मंदिरों के लिये और वाहनों सहित, बर्तन, फर्नीचर, मूर्तिकला, चित्रों, आदि।दक्षिण भारत में वास्तु का नींव परंपरागत महान साधु मायन को जिम्मेदार माना जाता है और उत्तर भारत में विश्वकर्मा को जिम्मेदार माना जाता है।वास्तुशास्त्र एवं दिशाएं संपादित करेंवास्तुशास्त्र एवं दिशाएंउत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम ये चार मूल दिशाएं हैं। वास्तु विज्ञान में इन चार दिशाओं के अलावा 4 विदिशाएं हैं। आकाश और पाताल को भी इसमें दिशा स्वरूप शामिल किया गया है। इस प्रकार चार दिशा, चार विदिशा और आकाश पाताल को जोड़कर इस विज्ञान में दिशाओं की संख्या कुल दस माना गया है। मूल दिशाओं के मध्य की दिशा ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य को विदिशा कहा गया है।वास्तुशास्त्र में पूर्व दिशा संपादित करेंवास्तुशास्त्र में यह दिशा बहुत ही महत्वपूर्ण मानी गई है क्योंकि यह सूर्य के उदय होने की दिशा है। इस दिशा के स्वामी देवता इन्द्र हैं। भवन बनाते समय इस दिशा को सबसे अधिक खुला रखना चाहिए। यह सुख और समृद्धि कारक होता है। इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर भवन में रहने वाले लोग बीमार रहते हैं। परेशानी और चिन्ता बनी रहती हैं। उन्नति के मार्ग में भी बाधा आति है।वास्तुशास्त्र में आग्नेय दिशासंपादित करेंपूर्व और दक्षिण के मध्य की दिशा को आग्नेय दिशा कहते हैं। अग्निदेव इस दिशा के स्वामी हैं। इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर का वातावरण अशांत और तनावपूर्ण रहता है। धन की हानि होती है। मानसिक परेशानी और चिन्ता बनी रहती है। यह दिशा शुभ होने पर भवन में रहने वाले उर्जावान और स्वास्थ रहते हैं। इस दिशा में रसोईघर का निर्माण वास्तु की दृष्टि से श्रेष्ठ होता है। अग्नि से सम्बन्धित सभी कार्य के लिए यह दिशा शुभ होता है।वास्तुशास्त्र में दक्षिण दिशासंपादित करेंइस दिशा के स्वामी यम देव हैं। यह दिशा वास्तुशास्त्र में सुख और समृद्धि का प्रतीक होता है। इस दिशा को खाली नहीं रखना चाहिए। दक्षिण दिशा में वास्तु दोष होने पर मान सम्मान में कमी एवं रोजी रोजगार में परेशानी का सामना करना होता है। गृहस्वामी के निवास के लिए यह दिशा सर्वाधिक उपयुक्त होता है।वास्तुशास्त्र में नैऋत्य दिशासंपादित करेंदक्षिण और पश्चिम के मध्य की दिशा को नैऋत्य दिशा कहते हैं। इस दिशा का वास्तुदोष दुर्घटना, रोग एवं मानसिक अशांति देता है। यह आचरण एवं व्यवहार को भी दूषित करता है। भवन निर्माण करते समय इस दिशा को भारी रखना चाहिए। इस दिशा का स्वामी राक्षस है। यह दिशा वास्तु दोष से मुक्त होने पर भवन में रहने वाला व्यक्ति सेहतमंद रहता है एवं उसके मान सम्मान में भी वृद्धि होती है।वास्तुशास्त्र में ईशान दिशासंपादित करेंईशान दिशा के स्वामी शिव होते हैं, इस दिशा में कभी भी शोचालय नहीं बनाना चाहिये!नलकुप, कुंआ आदि इस दिशा में बनाने से जल प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है।सन्दर्भसंपादित करें↑ "वास्तुशास्त्र विभाग, संस्कृत विद्यापीठ , नई दिल्ली". मूल से 12 अगस्त 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 अगस्त 2017.इन्हें भी देखेंसंपादित करेंवास्तुकला (आर्किटेक्चर)BAL Vnita mahila ashramशिल्पशास्त्रभारतीय स्थापत्यकलाबाहरी कड़ियाँसंपादित करेंस्थापत्य वेद - यहाँ सभी प्रमुख स्थापत्य वेद देवनागरी में उपलब्ध हैं।वास्तुविद्या के अनुसार भवन में कक्षों में का उपयुक्त स्थान (अखण्ड ज्योति १९९९)रूपमण्डनम् (वास्तुशास्त्र का संस्कृत ग्रंथ) (गूगल पुस्तक ; व्याख्याता - बलराम श्रीवास्तव)क्या है वास्तु ? (पंजाबकेसरी)आपके घर की वास्‍तु विशेषताएंआपके सपनों के घर में वास्तु की भूमिकाVnita Kasnia घर के लिए वास्तुवास्तु अनुसार टॉयलेट टिप्स और उपायLast edited 10 days ago By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबRELATED PAGESपूर्ववास्तुकलावास्तुकलाहिन्दू मन्दिर वास्तुकलाधार्मिक स्थलसामग्री CC BY-SA 3.0 By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबके अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो।गोपनीयता नीति उपयोग की शर्तेंडेस्कटॉप

वास्तु शास्त्र By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब किसी अन्य भाषा में पढ़ें डाउनलोड करें ध्यान रखें संपादित करें यह लेख एक  आधार  है। जानकारी जोड़कर इसे  बढ़ाने में  विकिपीडिया की मदद करें। संस्कृत  में कहा गया है कि...  गृहस्थस्य क्रियास्सर्वा न सिद्धयन्ति गृहं विना।   [1] वास्तु शास्त्र  घर, प्रासाद,  भवन  अथवा  मन्दिर  निर्माण करने का प्राचीन भारतीय विज्ञान है जिसे आधुनिक समय के विज्ञान आर्किटेक्चर का प्राचीन स्वरुप माना जा सकता है। जीवन में जिन वस्तुओं का हमारे दैनिक जीवन में उपयोग होता है उन वस्तुओं को किस प्रकार से रखा जाए वह भी वास्तु है वस्तु शब्द से वास्तु का निर्माण हुआ है वास्तु पुरुष की अवधारणा डिजाइन दिशात्मक संरेखण के आधार पर कर रहे हैं। यह हिंदू वास्तुकला में लागू किया जाता है, हिंदू मंदिरों के लिये और वाहनों सहित, बर्तन, फर्नीचर, मूर्तिकला, चित्रों, आदि। दक्षिण भारत में वास्तु का नींव परंपरागत महान साधु  मायन  को जिम्मेदार माना जाता है और उत्तर भारत में  विश्वकर्मा  को जिम्मेदार माना जाता है। वा...

वास्तु शास्त्र के अनुसार हमें रसोई और शयनकक्ष किस दिशा में बनाने चाहिए? क्या आप कुछ अच्छी वास्तु टिप्स दे सकते है? By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबरसोई घर हमेशा आग्नेय कोण में ही होना चाहिए |रसोईघर के लिए दक्षिण-पूर्व क्षेत्र (आग्नेय कोण) सर्वोत्तम रहता है, वैसे यह उत्तर-पश्‍चिम में भी बनाया जा सकता है |यदि घर में अग्नि आग्नेय कोण में हो तो यहां रहने वाले कभी भी बीमार नहीं होते | ये लोग हमेशा सुखी जीवन व्यतीत करते हैं|ध्यान दे ~ रसोई का स्लैब L शेप में हो और नीला रंग का प्रयोग न करें |घर में आपके बेडरूम का स्थान आपके जीवन को प्रभावित करता है। कैसे?दक्षिण या दक्षिण-पश्चिम में एक बेडरूम वैवाहिक रिश्ते में स्थिरता प्रदान करता है। इस बेडरूम में रहने वाले हमेशा जीवन के सभी क्षेत्रों में नियंत्रण में रहते हैं।दक्षिण- पूर्व, अग्नि तत्व से जुड़ा है और उग्र जुनून को सामने लाता है। यह दिशा एक सक्रिय जीवन का आश्वासन देती है लेकिन, आपको छोटा भी बना सकती है, जिससे आपके जीवनसाथी के साथ अक्सर बहस हो सकती है। कभी भी इसे एक स्थायी बेडरूम न बनाएं। इसलिए दक्षिण पूर्व में एक कमरा केवल यौन गतिविधियों के लिए अच्छा है।उत्तर और उत्तर-पूर्व में एक बेडरूम युवा जोड़ों के लिए आदर्श है। इस दिशा न केवल संतोषजनक है, बल्कि सबसे सुखद और स्थायी भी है।एक नवविवाहित जोड़ा उत्तर-पश्चिम बेडरूम में शानदार है। हालांकि, इस बेडरूम की स्थिति को लंबे समय तक रखने की सिफारिश नहीं की जाती है। ·पश्चिम में एक बेडरूम दक्षिण बेडरूम की तरह संतोषजनक वैवाहिक जीवन के लिए एक आदर्श स्थान है।बाल वनिता महिला आश्रमNote: ब्रह्मांड की हर चीज की तरह, हमारे शरीर भी पांच मूल तत्वों से बने हैं और हमारे पास तत्काल ऊर्जा में मौजूद ऊर्जाओं के साथ संचार कर रहे हैं।

वास्तु शास्त्र के अनुसार हमें रसोई और शयनकक्ष किस दिशा में बनाने चाहिए? क्या आप कुछ अच्छी वास्तु टिप्स दे सकते है? By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब रसोई घर हमेशा आग्नेय कोण में ही होना चाहिए | रसोईघर के लिए दक्षिण-पूर्व क्षेत्र (आग्नेय कोण) सर्वोत्तम रहता है, वैसे यह उत्तर-पश्‍चिम में भी बनाया जा सकता है | यदि घर में अग्नि आग्नेय कोण में हो तो यहां रहने वाले कभी भी बीमार नहीं होते | ये लोग हमेशा सुखी जीवन व्यतीत करते हैं| ध्यान दे ~ रसोई का स्लैब L शेप में हो और नीला रंग का प्रयोग न करें | घर में आपके बेडरूम का स्थान आपके जीवन को प्रभावित करता है। कैसे? दक्षिण या दक्षिण-पश्चिम में एक बेडरूम वैवाहिक रिश्ते में स्थिरता प्रदान करता है। इस बेडरूम में रहने वाले हमेशा जीवन के सभी क्षेत्रों में नियंत्रण में रहते हैं। दक्षिण- पूर्व, अग्नि तत्व से जुड़ा है और उग्र जुनून को सामने लाता है। यह दिशा एक सक्रिय जीवन का आश्वासन देती है लेकिन, आपको छोटा भी बना सकती है, जिससे आपके जीवनसाथी के साथ अक्सर बहस हो सकती है। कभी भी इसे एक स्थायी बेडरूम न बनाएं। इसलिए दक्षिण पूर्व में एक...

Why does Lord Shiva like Bhang Dhatura?By philanthropist Vanita Kasaniyan 3In order to remove the heat of Halahal from Lord Shiva's place, the Gods placed detangles, cannabis and continued Jalabhisheka at the head of Lord Shiva.

भगवान शिव को भांग धतूरा क्यों पसंद है? By समाजसेवी वनिता कासनियां 3 भगवान श‌िव के स‌िर से हालाहल की गर्मी को दूर करने के ल‌िए देवताओं ने भगवान श‌िव के स‌िर पर धतूरा, भांग रखा और न‌िरंतर जलाभ‌िषेक क‌िया। इससे श‌िव जी के स‌िर से व‌िष का दूर हो गया। इस समय से ही भगवान श‌िव को धतूरा, भांग और जल चढ़ाया जाने लगा। आयुर्वेद में भांग और धतूरा का इस्तेमाल औषध‌ि के रूप में होता है।